New Education Policy Overall analysis नई शिक्षा नीति का समग्र विश्लेषण


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New Education Policy

नई शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) को जुलाई 29, 2020 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंजूरी प्रदान की है। प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में बनी कमेटी ने नई शिक्षा नीति का प्रारूप (draft ) तैयार किया। लागू होने पर यह नीति अगले सालों में शिक्षा के स्वरूप और ढाँचे को निर्धारित करेगी और इससे प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा एवं शिक्षण संस्थान प्रभावित होंगे।

जमाने की जरूरत और बाजार की मांग को ध्यान में रखते हुए बीती सदी में भी वक़्त-वक़्त पर शिक्षा नीतियां मंजूर होती रही हैं, लागू होती रही हैं। हर दौर की शिक्षा नीति उस दौर में नई ही कही जाती है। इस नई शिक्षा नीति सहित अब तक कि जितनी भी शिक्षा नीतियां घोषित हुई हैं, वे सब उम्दा और लुभावने शब्दों की चासनी में डुबोकर लोगों को चटाई गईं हैं। नई नीति के नाम पर कहा क्या जाता है और धरातल पर वह किस रूप में उतरती है और असल में कितनी अमल में लाई जाती है, इसमें जमीन-आसमान का अंतर होता है।

नई शिक्षा नीति की मंजूरी के साथ ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) का नाम बदलकर 'शिक्षा मंत्रालय' हो गया है। 1986 की शिक्षा नीति से पहले भी यही नाम था। अब 'पुनर्मूषको भव'...अर्थात एक बार फिर से इस विभाग का नाम ‘शिक्षा मंत्रालय’ हो गया है।

20 वीं सदी की शिक्षा नीतियों के पांच स्तम्भ

The University Education Commission of 1948-49, कोठारी कमीशन ( 1964-66 ), 1986 की नई शिक्षा नीति जिसे 1992 में उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के परिदृश्य में संशोधित किया गया-- इन सभी शिक्षा नीतियों के मुख्य पांच दिशा -निर्देशक सिद्धांत ( guiding principles ) ये थे:

1. Greater access ( अधिक से अधिक पहुंच )
कैसे?
पिछड़े व दूर दराज के इलाकों में चरणबद्ध तरीके से शिक्षा संस्थाएं खोलना।
2. Equal access ( बराबरी की पैठ/ पहुंच )
कैसे?
वंचित वर्ग के विद्यार्थियों के लिए प्रवेश पात्रता में शिथिलता, शुक्ल में छूट, छात्रवृत्ति आदि का प्रावधान करना।
3. Quality and excellence ( गुणवत्ता एवं उत्कृष्टत )
कैसे?
मॉडल स्कूल एवं कॉलेज, सेंटर ऑफ एक्सीलेंस की स्थापना कर अतिरिक्त बजट आवंटित करना।
4. Relevance (प्रासंगिकता )
कैसे?
आधुनिक युग की ज़रूरतों के अनुरूप एवं आधुनिक सोच को प्रेरित करने वाला सामाजिक-आर्थिक रूप से सुसंगत पाठ्यक्रम निर्धारित करना।
5. Promotion of social values ( सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा )
कैसे?
बहु संस्कृति वाले इस देश में सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए समाजिक मूल्यों जैसे सहिष्णुता, सद्भाव, भाईचारे आदि की भावना को प्रेरित करने वाली पाठ्यसामग्री का समावेश करना एवं सामाजिक न्याय की नीति अपनाना।

नई शिक्षा नीति के स्तम्भों के बारे में दावा क्या है?

प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर नई शिक्षा नीति 2020 के जो पांच स्तंभ गिनाए हैं, वे ये हैं:
Access( पहुंच ), Equity (समदृष्टि ), Quality (गुणवत्ता), Affordability ( सामर्थ्य ) और Accountability (जवाबदेही )

इस नई शिक्षा नीति को गौर से पढ़ने पर पता चलता है कि प्रधानमंत्री द्वारा गिनाए गए पांच स्तम्भों में से सिर्फ क़्वालिटी का जिक्र तो इस नीति के दस्तावेज में बार -बार किया गया है। बिना किसी कार्ययोजना को स्पष्ट करते हुए चलताऊ रूप में एक्सेस यानी पहुंच और इक्विटी की बात की गई है। ध्यान देने की ख़ास बात है कि इसमें ग्रेटर एक्सेस यानी शिक्षा के अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच का कोई रोडमैप नहीं दिया गया है। इसमें तो उच्च शिक्षा के लिए सिर्फ जिले या उसके समीप एक मल्टी डिसीप्लीन उच्च शिक्षण संस्थान खोलने की बात की गई है। तीन हज़ार से कम विद्यार्थी संख्या वाले कॉलेज बंद करने का रोडमैप दिया गया है।

समाज के सभी वर्गों/तबक़ों की हर स्तर की शिक्षा तक बराबर की पहुंच/पैठ को सुगम बनाने की बज़ाय इसमें इक्विटी यानी समदृष्टि की बात की गई है। समान दृष्टि को तो कई अर्थों में समझा जा सकता है। इस नीति में अफोर्डबिलिटी और एकाउंटेबिलिटी का कहीं कोई खास ज़िक्र नहीं किया गया है।

पहले की शिक्षा नीतियों के दो महत्वपूर्ण स्तम्भों Relevance (प्रासंगिकता ) और Promotion of social values ( सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा ) को इस नई शिक्षा नीति में दरकिनार कर दिया गया है। परम्परा से पोषित भारतीय ज्ञान ( Tradiional knowledge ) को आधुनिक ज्ञान ( modern knowledege ) से ज़्यादा तरज़ीह दी गई है।

नई सदी की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करने का कोई विज़न इस नीति में नहीं है। हमारा देश बहुल संस्कृति और बहुल-भाषा वाला देश है। इस बहुरंगेपन को एक इंद्रधनुषी राष्ट्रीयता में विकसित करना, अपनी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करते हुए एक वैश्विक चेतना सम्पन्न नागरिक का निर्माण करने का लक्ष्य होना चाहिए था, उसका उल्लेख इस नीति में नहीं है।

अतः स्पष्ट है कि पहले की शिक्षा नीतियों के प्रमुख स्तम्भों को, क्वालिटी के स्तम्भ को छोड़कर, नई शिक्षा नीति 2020 में बड़ी चालाकी से या तो कमजोर कर दिया गया है या फिर ढहा दिया गया है।

स्कूली शिक्षा में क्या बदला है?

स्कूली शिक्षा के संदर्भ में बदलाव ये किया गया है कि 10+2 के सरल फार्मेट को खत्म कर इसके स्थान एक जटिल 5+3+3+4 फार्मेट लाया गया है।

5+3+3+4 फार्मेट क्या है?

दरअसल इस फॉरमेट को 3+2+3+3+4 कहा जाना चाहिए। कैसे ? ये देख लीजिए। पहली व दूसरी स्टेज में लगने वाले पांच सालों को मिलाकर एक किया गया है।
पहले 3 साल नर्सरी, एलकेजी और यूकेजी
फिर 2 साल ( कक्षा पहली और दूसरी )
फिर 3 साल( कक्षा तीसरी, चौथी और पांचवीं )
फिर 3 साल ( कक्षा छठवीं, सातवीं और आठवीं )
फिर 4 साल ( कक्षा नौवीं, दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं )

अब इसका विस्तृत वर्णन पढ़ लीजिए।

पांच साल का फाउंडेशनल

3 वर्ष से 6 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये आँगनवाड़ी/बालवाटिका/प्री-स्कूल (Pre-School) के माध्यम से ‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा’ (Early Childhood Care and Education- ECCE) से जोड़ने की बात कही गई है। तीन साल की उम्र से बच्चे को आंगनबाड़ी से जोड़कर तीन साल तक उसकी देखभाल होगी और उसके बाद के अगले दो साल प्री-प्राइमरी स्कूल/ प्री-स्कूलिंग की कक्षा/ ग्रेड 1 व 2 की पढ़ाई होगी जो कि अक्षरों एवं अंकों ( figures ) तक सीमित रहेगी। इस तरह फाउंडेशन और प्री-स्कूलिंग को मिलाकर आरंभिक पढ़ाई के पहले पांच साल का चरण पूरा होगा। इसमें तीन से आठ साल तक की आयु के बच्चे कवर होंगे।

अच्छी बात है कि फॉउंडेशनल व प्री-प्राइमरी एजुकेशन की बात की गई है जो कि अब जमाने की जरूरत बन गई है। वैसे महानगरों व बड़े शहरों में प्ले स्कूल/ नर्सरी स्कूल के नाम से ये पहले से प्रचलन में है।

बता दें कि आंगनबाड़ी अभी भी छोटे बच्चों की देखभाल करती है। नई शिक्षा नीति में आंगनबाड़ी को बाल कल्याण विभाग से हटा कर शिक्षा विभाग में मर्ज करने का एलान करती है। औपचारिक पढ़ाई से पहले आंगनबाड़ियों के ज़रिए बच्चों का जो शुरू के तीन सालों का कोर्स होगा उसे यों समझ लीजिए कि ये नर्सरी, LKG & UKG की तर्ज पर होगा।
पांच साल की फॉउंडेशनल स्टेज के कोर्स में लचीलापन रहेगा। बहुस्तरीय, खेल/ एक्टिविटी बेस्ड लर्निंग पर जोर रहेगा।

नई नीति में घुमाफिरा कर यह स्वीकार किया गया है कि फॉउंडेशनल स्टेज में अध्यापक की कोई जरूरत नहीं होती है। इससे ये संकेत मिलता है कि राज्य सरकारें इस काम को आँगनबाड़ी वर्कर्स, एनजीओ और सोशल वर्कर्स के हवाले करेंगी।

तीन साल की प्रीप्रेटरी स्टेज

इस चरण में बच्चों की कक्षा तीन से पांच तक की पढ़ाई होगी। इस दौरान प्रयोगों के जरिए बच्चों को विज्ञान, गणित, कला आदि की पढ़ाई कराई जाने की बात कही गई है। आठ से 11 साल तक की उम्र के बच्चों को इसमें कवर किया जाएगा।

पहले ये प्राइमरी स्कूल कहलाती थी। चूंकि 'प्राइमरी' शब्द बोलने में सरल है, इसलिए शब्द को थोड़ा जटिल बनाकर 'प्रीप्रेटरी' कर दिया गया है ताकि बदलाव का झुनझुना बज जाए। दस्तावेज के हिंदी अनुवाद में इसका अर्थ 'तैयारी' स्टेज किया गया है, जो कि हास्यस्पद प्रतीत होता है। वैसे इसका हिंदी में अनुवाद "प्रारंभिक" होना चाहिए था। अंग्रेजी के एक मामूली शब्द का उपयुक्त हिंदी अर्थ खोजने में ये हमारे नीति निर्माताओं की असमर्थता को प्रकट करता है।

तीन साल की मिडिल स्टेज

मिडिल स्टेज में कक्षा 6 से 8 तक की पढ़ाई होगी तथा 11-14 साल की उम्र के बच्चों को कवर किया जाएगा। इन कक्षाओं में विषय आधारित पाठ्यक्रम पढ़ाया जाएगा। कक्षा छह से ही कौशल विकास के कोर्स ( Skill development course ) शुरू किए जाएंगे।
छात्रों को छठी कक्षा से ही कंप्यूटर और एप्लीकेशन के बारे में जानकारी दी जाएगी साथ ही उन्हें कोडिंग ही सिखाई जाएगी। राज्यों और स्थानीय समुदायों द्वारा तय किए गए महत्वपूर्ण व्यावसायिक शिल्प, जैसे बढ़ईगीरी, बिजली का काम, धातु का काम, बागवानी, मिट्टी के बर्तन बनाना आदि का हुनर सिखाया जाएगा। इतना ही नहीं, छात्रों को छठी क्लास के बाद से ही इंटर्नशिप करवाई जाएगी। ये इंटर्नशीप अवसर ग्रेड 6-12 तक छुट्टियों की अवधि में भी उपलब्ध करवाए जा सकते हैं।( बिंदु 4.26 )

" Every student will take a fun course, during Grades 6-8, that gives a survey and hands-on experience of a sampling of important vocational crafts, such as carpentry, electric work, metal work, gardening, pottery making, etc...
All students will participate in a 10-day bagless period sometime during Grades 6-8 where they intern with local vocational experts such as carpenters, gardeners, potters, artists, etc. Similar internship opportunities to learn vocational subjects may be made available to students throughout Grades 6-12, including holiday periods."

मिडिल कोर्स से ही कौशल विकास पर जोर देकर उम्मीद की गयी है कि हर बच्चा किसी न किसी न किसी हुनर के साथ हुनरमंद हो जाएगा और किसी काम में लग जाएगा।

अव्यवहारिक विचार

िक्षा नीति में कक्षा 6 से छात्रों का व्यावसायिक प्रशिक्षण शुरू करने की बात है जिसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह बच्चों को श्रम बाजार में धकेलने की तैयारी है। कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चे कौशल उन्नयन के नाम पर कुछ अक्षर-ज्ञान सीखकर शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों से दूर हो जाएंगे। इसका परिणाम ये होगा कि बच्चे आगे की पढ़ाई छोड़कर किसी कारीगर के पास या कुटीर उद्योग में मजदूरी करने लग जाएंगे।

इंटर्नशिप के दौरान कई कारीगर/ उस्ताद ऐसे भी मिलेंगे जो इन बच्चों को कुछ प्रलोभन देकर उनको पढ़ाई से विमुख कर अपना हेल्पर बना लेंगे। कई खूसट कारीगर इन बच्चों से कोई चूक होने पर इनसे गली गलौच करेंगे, फब्तियां कसेंगे, जिससे बच्चों के आत्मसम्मान को चोट पहुंचेगी। ये कारीगर स्थानीय होने के कारण इन बच्चों के परिवार के बारे में फब्तियां कसने की गुस्ताख़ी करने से भी बाज़ नहीं आएंगे। मिडिल स्टेज पर ही इंटर्नशिप का प्रावधान करते समय इस नीति में इन वाज़िब चिंताओं को दरकिनार कर दिया गया है।

बाल मनोविज्ञान को समझने वाले जानते हैं कि चौदह साल की उम्र तक बच्चों को कमाऊ बनाने से रोकना चाहिए। ये कच्ची उम्र खेलने-कूदने-पढ़ने की होती है। छठी क्लास में ही बच्चों के दिमाग में कमाऊ बनने या होने की बात इस समय तक नहीं आना चाहिए।

मिडल स्कूल तक बच्चों की उम्र दस-बारह साल की होती है। इस उम्र में उनको कारीगरों के यहां भेजकर उनसे इंटर्नशिप करवाने से क्या अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिनियमों की क्या इससे अनदेखी नहीं होगी? क्या बाल-श्रम अधिनियमों का उल्लंघन नहीं होगा?

चार साल की सेकेंडरी स्टेज

सीनियर या हायर सेकंडरी स्कूल की प्रणाली खत्म कर स्कूल की उच्चतम पढ़ाई को सेकेंडरी स्टेज की पढ़ाई का नाम दिया गया है। कक्षा नौ से 12 तक की पढ़ाई दो चरणों ( कक्षा 9 व 10 तथा 11 व 12 ) में होगी जिसमें विषयों का गहन अध्ययन कराया जाएगा। विषयों को चुनने की आजादी की बात कही गई है।

चौथा स्टेज (कक्षा 9 से 12वीं तक का) 4 साल का होगा। पहले के10+ 2 पैटर्न में विद्यार्थी जहां 11 वीं कक्षा में वैकल्पिक विषय चुनता था, अब उसे ये काम 9 वीं कक्षा में करना होगा। बता दें कि 1986 की नीति से पहले विद्यार्थी को 9 वीं कक्षा में ही वैकल्पिक विषय अर्थात विज्ञान, कला, वाणिज्य, कृषि आदि संकायों में से कोई एक संकाय चुनना पड़ता था। अब नई शिक्षा नीति में 'पुनर्मूषको भव'...अर्थात एक बार फिर से 9 वीं कक्षा में ही विद्यार्थी को ऑप्शनल सब्जेक्ट्स चुनने होंगे।

पहले जैसे साइंस ,आर्ट्स तथा कॉमर्स के स्ट्रीम हुआ करते थे उसके तहत छात्रों को उस स्ट्रीम के अंतर्गत आने वाले निश्चित विषयों में से ही तीन ऑप्शनल विषयों का चयन कर उनकी पढ़ाई करनी होती थी। नई नीति में इस बंधन को खत्म कर दिया गया है। ये नीति लागू होने के बाद अगर कोई विद्यार्थी फिजिक्स का चयन करता है तो वह चाहे तो इसके साथ में आर्ट्स या कॉमर्स के भी सब्जेक्ट का चयन कर सकता है ।

वैसे ये मानी हुई बात है कि 9 वीं कक्षा तक बच्चा इतना परिपक्व नहीं होता कि वह ये समझ सके कि कौनसा विषय उसकी अभिरुचि का है और कौनसे विषय को पढ़ने से उसके कॅरिअर का निर्माण होगा।

इस नई शिक्षा नीति से ग्रामीण भारत और वंचित वर्ग की प्रतिभा का कुचला जाना तय है क्योंकि गाँवों में नासमझी के कारण अधिकांश बच्चे प्रैक्टिकल परीक्षा वाले सब्जेक्ट जैसे चित्रकला, हस्तकला, फिजिकल एजुकेशन, योग, नाच-गान आदि सरल सब्जेक्ट चुनेंगे और उनके कॅरिअर का कबाड़ा वहीं हो जाएगा।

विसंगति

नई शिक्षा नीति में सेकेंडरी स्टेज में कक्षा 9 से 12 तक की चार कक्षाओं को एक ही ब्रैकेट में रख देने से एक विसंगति उभरने वाली है, जिसकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं गया है। 12 वीं तक की इस स्टेज का नाम हायर/ सीनियर सेकेंडरी नहीं करके सेकेंडरी रखा गया है। इसका मतलब ये हुआ कि ये स्टेज पूरी करने यानी 12 वीं की बोर्ड परीक्षा पास करने पर विद्यार्थी को सेकेंडरी स्टेज का प्रमाण पत्र दिया जाएगा। कई विद्यार्थी विभिन्न कारणों या मजबूरीवश 10 वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। क्या ऐसे विद्यार्थियों को सेकंडरी का प्रमाण-पत्र दे दिया जाएगा? शायद 10वीं परीक्षा पास का प्रमाण पत्र दे दिया जाए पर इसका स्पष्ट उल्लेख नीति में नहीं है।

स्कूली शिक्षा की दो सोपानीय पुरानी व्यवस्था 10 +2 के स्थान पर इसे चार सोपानीय ( 5+3+3+4 ) व्यवस्था करने के पीछे कोई तार्किकता नज़र नहीं आती है। जितने सोपान या स्टेज बढ़ेंगे उतने ही ग्रामीण क्षेत्रों में ड्रॉप आउट के केस बढ़ेंगे। चरणों की संख्या ज्यादा होने से अनिवार्य शिक्षा के वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का अंदेशा है।

पाठ्यक्रम ( Curriculum )

दस्तावेज का बिंदु संख्या 4.27 स्कूल पाठ्यक्रम में भारत के ज्ञान ( Knowledge of India ) के अंतर्गत विशेष तौर से भारतीय ज्ञान प्रणाली ( Indian Knowledge Systems ), जिसमें जनजातीय ज्ञान, और ज्ञानार्जन के देशज व परम्परागत तरीके शामिल हैं, उन्हें अपनाए जाने की वक़ालत करता है। इसमें गणित-ज्योतिष, वास्तुकला, योग, दर्शन, भाषा विज्ञान, औषध, कृषि इंजीनिरिंग, खेलकूद, भारतीय शासन, राजशासन ( ?? ) आदि को शामिल किए जाने पर जोर दिया गया है।

भारतीय ज्ञान तंत्र ( Indian Knowledge Systems ) सेकेंडरी स्कूल में एक इलेक्टिव यानी ऑप्शनल सब्जेक्ट के रूप में उपलब्ध रहेगा।
वैदिक गणित, दर्शन और प्राचीन भारतीय परंपरा से जुड़े विषयों को अहमियत देने की बात भी नई शिक्षा नीति में कही गई है।

दरअसल ये शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली की ओर लौटने की क़वायद सी लगती है। वैसे वैश्विक दृष्टि के विकास हेतु पाठ्यक्रम में वैश्विक ज्ञान ( global knowledge ) का समावेश किया जाना जरूरी होता है। भारत सहित दुनिया के किसी भी कोने में जो उन्नत एवं परिष्कृत ज्ञान है, उसे पाठ्यक्रम में शामिल कर ही हम नई पीढ़ी को ज्ञानवान बना सकते हैं।

शिक्षा का माध्यम ( Medium of Instruction )

मीडिया में ठेली जा रही अधकचरी जानकारी से गुमराह होकर कुछ लोग सोचते हैं कि अब स्कूल की पढ़ाई मातृ भाषा/ स्थानीय या आंचलिक भाषा में होने लगेगी। जी, ऐसा होना संभव प्रतीत नहीं होता है। इसमें कई पेच हैं। दस्तावेज की भाषा पर गौर करेंगे तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा।

4.11 "Wherever possible, the medium of instruction until at least Grade 5 , but preferably till Grade 8 and beyond, will be the home language/ mother tongue/local language/ regional language."

दस्तावेज का बिंदु 4. 11 तो ये कहता है कि 'जहाँ कहीं सम्भव हो', वहाँ कक्षा पाँच तक, अच्छा तो ये होगा कि कक्षा 8 और आगे भी, की पढ़ाई का माध्यम घर पर बोली जाने वाली भाषा ( परिवार की भाषा )/ मातृ भाषा/ स्थानीय या आंचलिक भाषा होगी। मान लीजिए कि जो बच्चे जब पंजाबी, उर्दू, तमिल, तेलुगू और कन्नड़ भाषा में पढ़ाई करके बड़े शहरों में जाएँगे तो उनकी आगे की पढाई कैसे और किन भाषाओँ में करवाई जाएगी, इसका खुलासा इस दस्तावेज़ में नहीं है। किसी विषय को एक भाषा यथा हिंदी/ अंग्रेज़ी में पढ़ाने के लिए मुश्किल से ज्यादातर स्कूलों में एक शिक्षक ही होता है। शिक्षा नीति में बड़ी उदारता का परिचय देते हुए पढ़ाई के माध्यम के लिए कई भाषाओं जैसे घर पर बोली जाने वाली भाषा, मातृ भाषा, स्थानीय व आंचलिक भाषा का उल्लेख कर दिया गया है। किसी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की ये भाषाएं अलग- अलग हो सकती हैं। क्या किसी स्कूल में एक ही विषय को अलग-अलग भाषाओं में पढ़ाने के लिए अलग- अलग कई शिक्षक रखे जाएंगे? कतई संभव प्रतीत नहीं होता।

बारहवीं तक की विज्ञान और सोशल साइंस की किताबें हिंदी व कुछ क्षेत्रीय भाषाओं में मिल जाएंगी। लेकिन बारहवीं के बाद इन पर जो किताबें हिंदी में उपलब्ध हैं वे अंग्रेजी से हिंदी का शाब्दिक अनुवाद परोसती हैं और इतनी दोषपूर्ण हैं कि उनमें अर्थ का अनर्थ मिलता है। मसलन medium of instruction का मतलब 'शिक्षा/ पढ़ाई का माध्यम' अर्थात भाषा से होता है। इस शिक्षा नीति के हिंदी अनुवाद में इसे 'निर्देश का माध्यम' लिखा गया है। इसे कहते हैं हिंदी की हिंदी करना।

मातृ भाषा/ घर पर बोली जाने वाली भाषा के अलावा राज भाषा ( हिंदी ) एवं सेकंड लैंग्वेज ( भारत के संदर्भ में अंग्रेज़ी ) सीखने की शुरुआत बचपन से करने पर ही फलदायी साबित होता है। भाषा सीखने की शुरुआत सुनने से ही होती है और बच्चे को स्कूल कुछ सीखने के लिए ही भेजा जाता है। जब बच्चा स्कूल में पढ़ाई के दौरान मातृभाषा के अलावा कुछ सुनेगा ही नहीं तो दूसरी जरूरी भाषाएं सीखेगा कैसे?

अंग्रेज़ी को लेकर हम कितना भी नाक-भौं सिकोड़ लें,
दुनियाँ का हर क़िस्म का परिष्कृत ज्ञान अंग्रेज़ी में है। घर पर बोली जाने वाली भाषा या स्थानीय बोली को शिक्षा का माध्यम बनाने की डुगडुगी बजाना ग्रामीण इलाकों एवं वंचित वर्गों के बच्चों को हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों के शुरुआती आधार से महरूम करने का षड्यंत्र ह

प्रतिभासंपन्न विद्यार्थी का बिना अंग्रेज़ी के ज्ञान के रिसर्च के क्षेत्र में पिछड़ना तय है। वैश्वीकरण के इस दौर में अंग्रेज़ी में बिना सम्प्रेषण कौशल के अकैडमिक या पेशेवर रूप से आगे बढ़ने में कई कठिनाइयाँ पेश आती हैं। एम्स, आईआईटी नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज आदि की पूरी पढ़ाई अंग्रेज़ी में है। सुप्रीम कोर्ट का सारा काम- काज अँग्रेजी में होता है। क्या वहाँ हस्तक्षेप करने की हिम्मत की जाएगी?

शहरों में मध्यवर्गीय और श्रेष्ठी वर्ग के परिवारों में बच्चों को "टू वंजा टू, टू टूजा फोर..." के बदले "दो एक्का दो, दो दूनी चार..." की रट लगाते देखना क्या इन वर्गों के परिवार बर्दाश्त कर पाएंगे? क्या सरकार में अंग्रजी माध्यम की स्कूलों को बंद करने की हिम्मत होगी? जी, कतई नहीं। हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं की तरफ़दारी करने वाले अधिकांश राजनेताओं, शिक्षाविदों, नौकरशाहों के बच्चे अंग्रेजी मीडियम की स्कूलों में पढ़ते हैं। अंग्रजी का हौवा खड़ा कर हिंदी पट्टी के ग्रामीण इलाकों के बच्चों के भविष्य को तबाह करने की साजिश के अलावा ये और कुछ नहीं है। विगत वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों के कई युवाओं ने भषागत कौशल अर्जित कर स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा में अपना परचम लहराया है। पारिवारिक भाषा या स्थानीय व आंचलिक भाषा पर आश्रित होने पर ये मंजिलें दूर हो जाएंगी।

परीक्षा व्यवस्था

शिक्षा नीति के दस्तावेज के बिंदु 4.40 के अनुसार ग्रेड/कक्षा-3, 5 और 8 के स्तर पर उपयुक्त प्राधिकरण द्वारा संचालित स्कूली परीक्षाओं में सभी छात्र बैठेंगे। इसमें बच्चों का उनके नाम से मूल्यांकन नहीं किया जाएगा। नाम गुमनाम/ अज्ञात रखा जाएगा। इस परीक्षा के परिणाम का उपयोग केवल स्कूल अपने मूल्यांकन और सुधार की योजना बनाने में करेंगे।
ये तो हाल ही के कुछ साल पहले की स्थिति की कुछ अलग रूप में पुनरावृत्ति है। इन महत्वपूर्ण कक्षाओं में जब बच्चे का मूल्यांकन उसके नाम से नहीं होगा तो बच्चा पढ़ाई को गंभीरता से नहीं लेगा।

मीडिया में बोर्ड परीक्षाओं के बारे में कई भ्रांतिपूर्ण बातें परोसी जा रही हैं। इस बारे में दस्तावेज के अनुसार वस्तुस्थिति स्पष्ट कर रहा हूँ।

दस्तावेज के बिंदु 4. 37 के अनुसार 10 वीं एवं 12 वीं की बोर्ड परीक्षाएं जारी रखी जाएंगी पर इन्हें आसान बनाने का ऐलान किया गया है। बोर्ड की परीक्षाएं होंगी, लेकिन इनके महत्व को कम किया जाएगा। विद्यार्थियों के रटने की प्रवृत्ति को कम करने की दिशा में प्रयास किया जाएगा। विद्यार्थियों को बोर्ड परीक्षा में बैठने के दो अवसर मिलेंगे। इसका अभिप्राय एग्जाम के सेमेस्टर सिस्टम से कतई नहीं है। दस्तावेज में स्पष्ट किया गया है कि एक अवसर मुख्य परीक्षा का होगा और दूसरा अवसर विद्यार्थी को अपने रिजल्ट में इम्प्रूवमेंट करने के लिए दिया जाएगा।

बिंदु 4.38 के अनुसार परीक्षा प्रणाली को लचीला बनाने के लिए उसमें मुख्य सुधार करते हुए 'Best-of-two-attempts' के मूल्यांकन का विकल्प विद्यार्थी को दिए जाने की बात कही गई है। परीक्षा का स्वरूप वार्षिक या सेमेस्टर या मॉड्यूलर में से कोई एक जो व्यवहार्य ( viable ) हो, उसे अपनाने की संभावनाओं को तलाशने की बात कही गई है। बता दें कि मॉड्यूलर बोर्ड एग्जाम से अभिप्राय पाठ्यक्रम को यूनिट्स/ खण्डों / मॉड्यूल्स में विभक्त किया जाकर यूनिट्स की पढ़ाई समापन होने पर परीक्षा आयोजित करने से है।

कुछ निश्चित विषयों में प्रश्नपत्र को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहले भाग में बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ प्रश्न और दूसरा भाग वर्णनात्मक ( descriptive ) प्रकार के प्रश्नों का होगा।
" Board exams in certain subjects could be redesigned to have two parts--one part of an objective type with multiple choice questions and the other of a descriptive type."

बोर्ड परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों का एक भाग बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के लिए कुछ वर्ष पूर्व तक निर्धारित था। चीटिंग का ये सबसे घिनौना स्वरूप साबित हुआ और इसे बंद करना पड़ा। नीति में इसे पुनः अपनाने की बात की गई है। इसका सीधा सा अर्थ है कि नीतिनिर्धारकों ने राज्यों के बोर्ड्स से उनके अनुभव साझा नहीं किये हैं ।

निजीकरण को बढ़ावा

नई शिक्षा नीति 1986 को सन 1992 में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के मद्देनजर संशोधित किया गया, जिसके बाद से ही शिक्षा के निजीकरण का अंधाधुंध सिलसिला शुरू हुआ। व्यापारीकरण और निजीकरण बढ़ते प्रचलन के फलस्वरूप शिक्षा बाजार की एक वस्तु एवं मुनाफा का साधन बनकर रह गयी। शिक्षा से हो रहे मुनाफे में बढ़ोतरी के लिए अब नई शिक्षा नीति 2020 पूंजीपतियों एवं कॉरपोरेट घरानों के लिए उत्साहवर्धन संदेश लेकर आई है। यह नीति शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थानों, कॉर्पोरेट घरानों के प्रवेश की राह सुगम बनाती है। इससे समावेशी और हर बच्चे तक शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करने की रास्ता बंद होगा और समाज में मौजूद असमानताएं और तेजी से पनपने लगेंगी।

8.4 " ...the private/ philanthropic school sector must be encouraged and enabled to play a significant and beneficial role."

इस बिंदु में प्रयुक्त भाषा पर बारीकी से गौर करेंगे तो सरकार का हिडन एजेंडा सामने आ जाएगा। इसमें 'should' ( advisability) की बज़ाय 'must' ( obligatory ) का उपयोग कर इसे सरकार के लिए बाध्यकारी बना दिया गया है कि वह प्राइवेट स्कूल सेक्टर को प्रोत्साहित करने और उसे समर्थ बनाने/ अधिकार देने का काम करेगी। एक चालाकी और देखिए कि इसमें प्राइवेट का अर्थ बदलकर इसे लोकोपकारी ( philanthropic ) के समकक्ष कर दिया गया है। वर्तमान में तो बिरले ही स्कूल होंगे जो लोकोपकार की भावना से प्रेरित होकर निःशुल्क शिक्षा दे रहे हों।

शब्दों के अर्थ कैसे बदले जाते हैं, इसका ये एक नायाब नमूना है। ये ऐसे ही जैसे प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को लालकिले से संबोधित करते हुए पूंजीपतियों/ उद्योगपतियों को wealth creators अर्थात राष्ट्र के संपदा सर्जक/ स्रष्टा की संज्ञा देकर उनका गुणगान किया था। क्या सर्जक सिर्फ धनाढ्य वर्ग ही है? क्या सर्जन में किसान-मजदूर-कामगार-शिक्षक की कोई भूमिका नहीं।

निजी स्कूलों को अपनी फीस तय करने के लिए आजाद किया गया है। नई शिक्षा नीति में प्राइवेट शिक्षा बोर्ड बनाने की बात कही गई है। निजी स्कूलों को अलग शिक्षा बोर्ड बनाने की मंजूरी मिलने से शिक्षा का निजीकरण बढ़ने ही वाला है। प्राइवेट स्कूलों द्वारा फीस बढ़ाने पर जो थोड़ा बहुत सरकारी नियंत्रण था, उसे भी हटाने की पैरवी इस नीति में कई गई है।

स्कूली शिक्षा का लोकव्यापीकरण

इस नीति में एक अहम बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 द्वारा 3-18 वर्ष के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा के लोकव्यापीकरण ( universalization ) की अनुशंसा है। इस सिफ़ारिश के संदर्भ में आरटीई फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीष राय की आशंका ये है कि पूर्व-प्राथमिक से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर तक शिक्षा अधिकार कानून का विस्तार किए बगैर यह कैसे संभव होगा? वर्तमान में बच्चों को अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के लिए हासिल मौलिक अधिकार के क्रियान्वयन के लिए जवाबदेह शिक्षा अधिकार कानून, 2009 और उसके दायरे में विस्तार को लेकर नई शिक्षा नीति आश्चर्यजनक रूप से मौन है। यह चुप्पी स्कूली शिक्षा के लोकव्यापीकरण के अहम मसले पर शिक्षा नीति की मंशा को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है। ये नई शिक्षा नीति बिना कानूनी अधिकार के 3-18 वर्ष के बच्चों की शिक्षा को लोकव्यापी बनाने की बात करती है, इसलिए इस संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों के लिए किसी अनिवार्य दिशा-निर्देश या व्यवस्थागत ढांचे की बात भी नहीं है।

डिजिटल डिवाइड

इस शिक्षा नीति में डिजिटल शिक्षा का दायरा बढ़ाने पर खूब जोर दिया गया है। दरअसल ये कदम समाज में पहले से ही मौजूद विभेदीकृत और बहुपरती शिक्षा की कड़ी में इजाफा करते हुए असमानताओं को और बढ़ावा देगा। हक़ीक़त तो ये है कि फिलहाल देश में डिजिटल शिक्षा से व्यापक आबादी समूहों को जोड़ने के लिए आवश्यक बुनियादी संरचना उपलब्ध नहीं है।
देश में इंटरनेट और कंप्यूटर की पहुंच समाज के बड़े तबके तक नहीं है। यहां तक कि सरकारी स्कूलों तक इन सुविधाओं से वंचित हैं। ग्रामीण इलाकों में बिजली की सुगम आपूर्ति नहीं है, स्कूलों में बच्चों को ऑनलाइन क्लासेज से जोड़ने के संसाधन सुलभ नहीं हैं। सभी स्कूली छात्रों की स्मार्ट फोन तक पहुंच सुगम नहीं है।
ऐसे में सबको ऑनलाइन माध्यम से शिक्षा देने की बात कल्पनात्मक ज्यादा और यथार्थ कम लगती है।   

यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफार्मेशन ऑन स्कूल एजुकेशन, स्कूल शिक्षा विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक केवल 9.85 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में ही कंप्यूटर हैं और केवल 4.09 प्रतिशत स्कूलों में इंटरनेट पहुंच पाया है। इन आधारभूत संरचना को सुनिश्चित किए बिना यह लक्ष्य कैसे पूरा होगा? कोविड-19 महामारी के इस भयावह दौर ने तो स्पष्ट दिखा दिया है कि ग्रामीण इलाकों एवं वंचित वर्ग के 70% से अधिक बच्चे किस तरह से डिजिटल दुनिया की ऑनलाइन कक्षाओं और शिक्षा-बाजार से बाहर हैं। डिजिटल लर्निंग के लिए जरूरी डिवाइस तक सभी की सुगम पहुंच सुनिश्चित किए बिना डिजिटल टीचिंग/लर्निंग को बढ़ावा देने से शहर और गाँव, अमीर और गरीब के बीच खाई और ज्यादा गहरी होगी।

टीचर बनने की पात्रता में नया क्या?

बिंदु 5.23 के अनुसार वर्ष 2030 तक अध्यापन के लिये न्यूनतम डिग्री योग्यता 4- वर्षीय एकीकृत बी.एड. डिग्री का होना अनिवार्य किया गया है। इससे बी एस टी सी के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है।

नई शिक्षा नीति के बिंदु 5. 4 के अनुसार फॉउंडेशनल स्टेज से सेकंडरी स्टेज यानी सभी स्टेज की कक्षाओं ( अर्थात कक्षा 12 तक ) के टीचर बनने के लिए अध्यापक पात्रता परीक्षा (Teacher Eligibility Tests -TETs) पास करना अनिवार्य रहेगा। सब्जेक्ट टीचर्स की भर्ती में भी TET or NTA टेस्ट के स्कोर को ध्यान में रखा जाएगा।

स्कूलों में टीचर्स को "भाड़े पर रखने के लिए" ( "for teacher hiring" ) टीचिंग के प्रति उनका जज़्बा
और अभिप्रेरण जांचने हेतु क्लासरूम डेमोंस्ट्रेशन या इंटरव्यू को अनिवार्य हिस्सा बनाए जाएगा। इस वाक्य में प्रयुक्त शब्दावली "teacher hiring" पर ज़रा गौर कीजिए। हिडन एजेंडा समझ में आ जाएगा। यहाँ "टीचर रिक्रूटमेंट" को "टीचर हायरिंग" से प्रस्थापित कर दिया गया है। इसका अर्थ तो ये हुआ कि कॉरपोरेट और उद्योग जगत की प्रिय नीति "hire and fire" अर्थात 'काम में लो और हटाओ' को अब शिक्षा जैसे बुनियादी आवश्यकता वाले क्षेत्र में भी अपनाने का सुझाव दिया गया है। नीति में एक जगह नहीं बल्कि कई जगह टीचर्स के लिए 'रिक्रूटिंग' की जगह 'हायरिंग' शब्द का इस्तेमाल किया गया है।

इस देश में इंटरव्यू के साथ जुड़ा भ्र्ष्टाचार ( आम बोलचाल में "जैक एंड चेक") जगज़ाहिर है। बहुतेरे मामलों में इंटरव्यू एक ढकोसला साबित होता रहा है।

नीति में बताया गया है कि टीचर्स के इंटरव्यू का उपयोग यह भी जांचने के लिए किया जाएगा की टीचर स्थानीय भाषा में बड़े आराम से पढ़ा पाने की दक्षता रखता है या नहीं। तर्क यह दिया गया है कि प्रत्येक स्कूल में कुछ टीचर्स ऐसे हों जो विद्यार्थियों से उनकी स्थानीय और उनके घरों पर बोली जाने वाली भाषाओं में बात कर सकें। बड़ा हास्यास्पद सुझाव है। लगता है कि नीति निर्माताओं ने वर्तमान में स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर्स के बारे में बिन आंकड़े जुटाए और वस्तुस्थिति जाने ये सुझाव परोसा है। हक़ीक़त तो ये है कि वर्तमान में प्रायः सभी स्कूलों, यहाँ तक कि अधिकांश कॉलेज भी, में कार्यरत कई टीचर्स उस जिले या संभाग के रहवासी हैं और वे अक्सर बच्चों से क्लासरूम के बाहर स्थानीय भाषा में ही संवाद करते रहते हैं। यहाँ तक कि हिंदी/ अंग्रेज़ी के कुछ कठिन शब्दों का अर्थ और बच्चों के लिए मुश्किल कॉन्सेप्ट्स को भी यदाकदा स्थानीय भाषा में बताते रहते हैं। फ़िलहाल स्कूलों में छात्रों से स्थानीय भाषा में संवाद करने की कोई समस्या नहीं है क्योंकि अब स्कूलों में राज्य के बाहर के टीचर्स की संख्या नगण्य है। ग्रामीण क्षेत्रों से अनभिज्ञ नीति निर्माताओं के दिमाग़ में शायद ये बात रही होगी कि स्कूलों, खास तौर से ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों, में सभी टीचर्स अंग्रेज़ी या हिंदी में संवाद करने में सक्षम हैं।सुझाव तो ये होना चाहिए था कि हर स्कूल में कुछ टीचर्स ग्लोबल लैंग्वेज अंग्रेज़ी और भारत की राज भाषा हिंदी में पारंगत होने चाहिए ताकि छात्रों को किसी भी विषय में पारंगत बनने के लिए आवश्यक उनकी भषागत दक्षता ( linguistic competence ) में निखार लाया जा सके।

5.4. ..."To gauge passion and motivation for teaching, a classroom demonstration or interview will become an integral part of teacher hiring at schools and school complexes. These interviews would also be used to assess comfort and proficiency in teaching in the local language, so that every school/school complex has at least some teachers who can converse with students in the local language and other prevalent home languages of students."

शिक्षा के चरण और नाम बदलने और इंटरव्यू को जरूरी कर देने से शैक्षिक ढांचे में सुधार सुनिश्चित नहीं हो सकता। निजी/सरकारी स्कूलों में बच्चों के दिमाग़ में व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी से निकला कचरा भरा जा रहा है, उसे रोका जाए तो बात बने। बच्चों को जो बात बताई जाए उसका स्रोत प्रामाणिक हो तो बात बने। निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए भी तय मानकों की सख़्ती से पालना हो और सिर्फ विषय की समझ रखने वालों का ही चयन हो तो कोई बात बने।

नई शिक्षा नीति लागू कब होगी?

NEP 2020 में सुझाए गए सुधारों का क्रियान्वयन कई चरणों में होगा। जरूरी नहीं है कि इसके सभी सुझाव लागू हो ही लिए जाएं, क्योंकि शिक्षा एक समवर्ती विषय है जिस पर केंद्र व राज्य सरकारें दोनों कानून बना सकती हैं। शिक्षा नीति के सुझावों को पूरी तरह से लागू करने के लिए सन 2040 का टारगेट रखा गया है। हालांकि, इसके कुछ सुझाव आने वाले दो-तीन सालों में लागू हो सकते हैं।

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